हाल के दिनों में शिवसेना नेता संजय राउत का दिल्ली में चंद्रबाबू नायडू के उपवास में शामिल होकर उन्हें समर्थन जताना और बंगाल की ममता बनर्जी की बात का समर्थन करते हुए केंद्र सरकार की ओर से सीबीआई का इस्तेमाल विरोधियों के खिलाफ करने का आरोप लगाने का मतलब क्या निकाला जाए, कि तकरीबन 30 साल पुराना बीजेपी और शिवसेना का गठबंधन अब अंतिम सांसें गिन रहा है? वैसे बीजेपी साल 2014 अक्टूबर में विधानसभा का चुनाव शिवसेना के बगैर लड़ी थी लेकिन महाराष्ट्र चुनाव के रिजल्ट के बाद दिसंबर में दोनों पार्टियों ने मिलकर वहां सरकार बनाई. ऐसे में शिवसेना लोकसभा चुनाव महाराष्ट्र में बीजेपी के साथ लड़ेगी या फिर गठबंधन से बाहर निकल लोकसभा और विधानसभा चुनाव अकेले लड़ेगी? 30 साल पुराना गठबंधन कमजोर क्यों पड़ने लगा है? दरअसल, 1989 में बीजेपी और शिवसेना हिंदुत्व के कॉमन मुद्दे पर एक साथ आए और उनका अटूट गठबंधन साल 2014 तक मजबूती से आगे बढ़ा. अटूट गठबंधन के पीछे शिवसेना सुप्रीमो बालासाहब ठाकरे और बीजेपी को सत्ता की सीढ़ी तक पहुंचाने वाले लाल कृष्ण अडवाणी के बीच जबर्दस्त तालमेल का होना बताया जाता है. महाराष्ट्र के बीजेपी नेता प्रमोद महाजन और गोपीनाथ मुंडे शिवसेना और बीजेपी के रिश्ते की गर्माहट बरकरार रखने में अहम किरदार निभाते थे . राज्य में शिवसेना बड़े पार्टनर की भूमिका में थी और बीजेपी छोटे पार्टनर के तौर पर. साल 1995 के विधानसभा चुनाव में महाराष्ट्र में शिवसेना 171 सीटों पर चुनाव लड़ी थी और बीजेपी के हिस्से में 117 सीटें आई थीं. इस चुनाव में शिवसेना 73 सीटें जीतने में कामयाब हुई थी वहीं बीजेपी 65 सीटें जीतकर शिवसेना के मनोहर जोशी के नेतृत्व में पहली बार सरकार बना पाने में सफलता हासिल कर सकी थी. ये भी पढ़ें: MNS-NCP के गठबंधन की वकालत के बाद राज ठाकरे से मिलने पहुंचे अजित पवार लेकिन साल 2014 में बीजेपी और शिवसेना का गठबंधन विधानसभा चुनाव में टूट गया था और दोनों पार्टियां चुनाव मैदान में एक दूसरे के सामने थीं. इस चुनाव का परिणाम बीजेपी के लिए ऐतिहासिक था और वो 123 सीटें जीत पाने में कामयाब रहीं. वहीं शिवसेना बीजेपी से गठबंधन टूटने के बाद 63 सीटें जीतने में कामयाब हो पाई. विधानसभा चुनाव के परिणाम के बाद राज्य की सत्ता बीजेपी के हाथ आ गई और देवेंद्र फणनवीस वहां के मुख्यमंत्री बन गए और शिवसेना छोटे पार्टनर के तौर पर सरकार में शामिल तो हुई लेकिन बीजेपी और शिवसेना के बीच मतभेद का दौर यहीं से शुरू हो गया. शिवसेना चाहती है कि साल 1995 की तर्ज पर गठबंधन हो लेकिन बीजेपी 2014 के परिणाम को देखते हुए अपनी तैयार की हुई राजनीतिक जमीन छोड़ने के पक्ष में नहीं है. शिवसेना कम सीट जीतने पर भी हर हाल में मुख्यमंत्री पद अपने हिस्से में करना चाहती है ताकी राज्य का नेतृत्व शिवसेना के हाथ में हो और केंद्र का नेतृत्व बीजेपी करे जिसमें शिवसेना शामिल होगी. साल 1995 के फॉर्मूले को मानना बीजेपी के लिए क्यों है मुश्किल? साल 1995 में बीजेपी और शिवसेना के बीच गठबंधन करते समय यह तय हो चुका था कि शिवसेना राज्य में बड़ी भूमिका में होगी और मुख्यमंत्री हर हाल में उसका होगा. इसको लेकर शिवसेना सुप्रीमो बाला साहब ठाकरे और बीजेपी के कद्दावर नेता अटल और अडवाणी के बीच सहमति थी. लेकिन साल 2014 के लोकसभा चुनाव का परिणाम देखें तो तस्वीर बदली दिखाई पड़ती है और बीजेपी का नेतृत्व भी पूरे देश में पार्टी की मौजूदगी को लेकर बेहद आक्रामक दिखाई पड़ता है . बीजेपी और शिवसेना के गठबंधन ने साल 2014 में 48 सीटों में 41 सीट जीत पाने में सफलता हासिल की थी. साल 2014 के लोकसभा चुनाव बीजेपी का मत प्रतिशत में 27.3 था और बीजेपी 28 सीटों पर परचम लहराने में कामयाब हो पाई थी वहीं शिवसेना 20.6 फीसदी वोट पाकर 18 सीटें जीतने में सफलता हासिल की थी. ये भी पढ़ें: BJP के महाराष्ट्र में 43 सीटें जीतने के दावे का शिवसेना ने उड़ाया मजाक बीजेपी और शिवसेना 2014 का लोकसभा चुनाव एक साथ लड़े थे लेकिन विधानसभा चुनाव में गठजोड़ टूट जाने के बाद बीजेपी 27.8 फीसदी वोट पाकर 123 सीटें जीत पाने में कामयाब हुई थी. बीजेपी का वोट फीसदी साल 2014 में 2009 की तुलना में लगभग दोगुना हो चुका था वहीं शिवसेना का वोट प्रतिशत साल 2014 के विधानसभा चुनाव में 16 फीसदी से बढ़कर तकरीबन 19 फीसदी पहुंचा है. शिवसेना साल 2014 में 63 सीट जीत पाई जबकि साल 2009 में वो 33 जीत पाने में कामयाब हुई थी. नरेंद्र मोदी के प्रधानमंत्री बनने के बाद महाराष्ट्र की राजनीतिक तस्वीर बदल चुकी थी. बीजेपी का मतप्रतिशत पिछले चुनाव की तुलना में दोगुना बढ़ चुका था. साल 2014 में बीजेपी का मत प्रतिशत शिवसेना से 7 फीसदी ज्यादा है और जीती हुई सीटें भी दोगुनी है . ऐसे में बीजेपी के लिए शिवसेना को बड़ी हिस्सेदारी देना मुनासिब नहीं दिखाई पड़ रहा है. यही वजह है कि पिछले महीने महाराष्ट्र के दौरे पर गए अमित शाह ने यह बयान दे डाला कि उनकी पार्टी आगामी लोकसभा का चुनाव अकेले लड़ेगी और 43 लोकसभा सीट जीतने के लक्ष्य को हासिल करेगी. लेकिन पर्दे के पीछे गठबंधन की कोशिशें जारी हैं और इस बात की तसदीक शिवसेना के सांसद संजय राउत ने मीडिया से बातचीत के क्रम में कर दी है. शिवसेना के बात से साफ है कि वो बीजेपी के लिए गठबंधन करने की अहमियत को समझते हुए उसका भरपूर फायदा उठाना चाहती है और लोकसभा चुनाव से पहले ही अपनी शर्तों पर बीजेपी से समझौता चाहती है. परंतु शिवसेना सुप्रीमो पर भी पार्टी के सांसदों का भारी दबाव है. जनवरी महीने में शिवसेना के वर्तमान सांसदों ने पार्टी सुप्रीमो को अवगत करा दिया था कि बीजेपी के बगैर चुनाव में जाना महंगा साबित हो सकता है वहीं सूत्रों की मानें तो शिवसेना की ओर से इंटरनल सर्वे भी कराया जा चुका है जिसमें शिवसेना के अकेले चुनाव लड़ने पर बीजेपी से कहीं ज्यादा शिवसेना को नुकसान पहुंचने की आशंका जताई गई है. ये भी पढ़ें: लोकसभा चुनावों में सबसे बड़ा दल बनेगा NDA मगर नहीं मिलेगा पूर्ण बहुमत: सर्वे गठबंधन में रोड़ा कहां अटका है? बीजेपी फिलहाल 50-50 फीसदी सीटों पर चुनाव लड़ने का फॉर्मूला देकर गठबंधन कायम रखना चाह रही है लेकिन शिवसेना महाराष्ट्र में बड़े पार्टनर की भूमिका चाहती है. शिवसेना जानती है कि महाराष्ट्र यूपी के बाद सबसे बड़ा राज्य है जहां 48 लोकसभा सीटें हैं. पिछले चुनाव में बीजेपी और शिवसेना 41 सीट जीत पाने में कामयाब हुए थे इसलिए महाराष्ट्र बीजेपी के लिए बेहद महत्वपूर्ण राज्य है. शिवसेना बिहार की तर्ज पर सीटों का बंटवारा चाहती है, जहां दोनों पार्टी के बीच बराबरी का बंटवारा हो और राज्य की सत्ता की कमान हर हाल में शिवसेना के हाथों होगा, इसको लेकर पहले ही सहमति हो जाए. जाहिर है, दोनों पार्टियां एक-दूसरे के बगैर चुनाव में जाने का नुकसान समझती हैं लेकिन इसको लेकर किस हद तक समझौता किया जाए वो सीमा तय होता दिखाई नहीं पड़ रहा है. समय बेहद कम है और शिवसेना प्रधानमंत्री के खिलाफ राफेल से लेकर राम मंदिर जैसे मुद्दे पर लगातार हमले कर रही है. ऐसे में बीजेपी हाईकमान के लिए शिवसेना के साथ समझौते के आसार बेहद कम लगने लगे हैं.
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