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काशी में मरने में मुक्ति है लेकिन दिल्ली में मरने से प्रसिद्धि

सपने सच नहीं होते. सुबह का सपना तो बिलकुल नहीं. हालांकि सपनों को सच बनाना पुरुषार्थ का काम है. पिछले दिनों जब मैं उम्र के इक्यावनवें पड़ाव पर पहुंचा, तो खुद को लगा, ‘अब तक क्या किया, जीवन क्या जिया.’ जो कल था वह आज नहीं है. जो आज है जरूरी नहीं कल भी हो. आज के संगी-साथी कल बिछड़ जाएंगे. हम जीवन के उस मोड़ पर पहुंच रहे हैं जहां से लोग बिछड़ना शुरू हो जाते हैं. जो आया है, वह जाएगा, तो फिर जीवन में इतनी हाय-तौबा क्यों? आधी रात के बाद इसी उधेड़बुन में दिमाग लगा रहा. अज्ञेय के मुताबिक समय ठहरता नहीं. अगर ठहरता है तो सिर्फ स्मृतियों में. और स्मृतियां मरने से पहले साफ हो जाती हैं. उस वक्त जीवन भर की घटनाएं एक-एक कर याद आती हैं. सारा लेखा-जोखा फिल्म की तरह चलता है. जन्म के बाद अगर कोई एक चीज निश्चित है तो वह मृत्यु है. इसलिए जो मरने का राज जान जाए, वह जीने का राज खुद-ब-खुद जान जाएगा. शायद गोरखनाथ इसीलिए कह गए-‘मरौ हे जोगी मरौ.’ न तो मैं पुनर्जन्म में विश्वास करता हूं, न मरने के बाद स्वर्ग-नरक में. मेरा मानना है, मौत जिंदगी का आखिरी फुल स्टॉप है. तो इक्यावनवें साल में पहुंचते ही उसी रात मैं जीवन में किए-अनकिए पर मंथन करने लगा. सोचते-सोचते बात आगे बढ़ गई. आधी रात के बाद मृत्यु के अवसर और स्थितियों पर विचार करने लगा. क्योंकि आप ईश्वर के अस्तित्व को तो नकार सकते हैं पर मृत्यु को नहीं. वह अटल है. दिमाग के कोने में कहीं बैठे कबीर ने कहा, ‘मरते-मरते जग मुआ, औरस मरा न कोय.’ सारा जग मरते-मरते मर रहा है, लेकिन ठीक से मरना कोई नहीं जानता. यह ठीक से मरना क्या हो? कैसे मरा जाए ठीक से? विचारों को ऐसे पंख लगे कि मैं कहां मरूं? और कैसे मरूं? सोचते-सोचते एक अजीबोगरीब आनंदलोक में पहुंच गया. मित्रों का दखल मेरे जीवन में बहुत रहा है. इसलिए मैं सार्वजनिक होने की हद तक सामाजिक हूं. शास्त्रों ने मरने के लिए काशी को सबसे उपयुक्त जगह माना है. कहते हैं, काशी में मरो तो मोक्ष मिलता है. कबीर इस धारणा को तोड़ना चाहते थे, इसलिए वे मरने के लिए काशी से मगहर चले गए. कबीर को पता नहीं मगहर में मोक्ष मिला या नहीं, लेकिन काशी अपनी जगह, अपनी धारणा और स्थापना पर कायम है. काशी यानी महाश्मशान, उसके अधिपति शिव यहीं विराजते हैं. इसलिए मृत्यु यहां परम पवित्र है. पर मेरी मौत को इवेंट कैसे बनाया जाए इस पर विचार चल रहा था. मित्रों की राय मृत्यु के बाद उसे भी बड़ा इवेंट बनाकर भुनाने की थी. इसलिए वे कहने लगे, मृत्यु का जो मजा दिल्ली में है, वह बनारस या छोटे शहर-कस्बों में कहां? दिल्ली में मृत्यु को इवेंट बनाया जा सकता है. जरूरत पड़े तो इवेंट मैनेजमेंट कंपनी को ठेका भी दिया जा सकता है. यहां रातोंरात खबर को तूफान बनाने वाले टेलीविजन चैनल हैं. राष्ट्रीय कहे जाने वाले अखबार हैं. टी.वी. पर न्यूज ब्रेक होगी. अखबार में फोटो छपेगी. मंत्रियों से फूल-मालाएं मिलेंगी. हो सकता है, राष्ट्रपति भवन या पीएमओ से शोक संदेश भी आ जाए. ठीक है. काश्यां मरणान् मुक्ति. यानी काशी में मरने में मुक्ति है, लेकिन दिल्ली में मरने से प्रसिद्धि है, जलवा है. दुविधा बड़ी थी, किधर जाएं. हमें दोनों में से एक चुनना था. दिल्ली में चाहे आप कितने ही ‘झंडू’ या ‘चिरकुट’ हों. मरने के साथ ही दुनिया को पता चल जाएगा कि आपके साथ एक बड़े युग का अंत हो गया. आपकी कमी पूरी नहीं की जा सकेगी. पत्रकार हैं तो पराड़कर के बाद आप ही थे. ये भी पढ़ें: बिलाती पाती: इतिहास की यात्रा में कहीं खो गईं चिट्ठियां कहानी, उपन्यास लिखते हैं तो प्रेमचंद की परंपरा की आप आखिरी कड़ी थे. कवि हैं तो जान लीजिए आपके साथ उत्तर-आधुनिक कविता का युग खत्म हो गया, यानी जो काम आप जीते-जी नहीं कर पाए, वह जलवा मरने के बाद होगा. फिर अगर बनारस में ही मरना है तो मरो ‘धूमिल’ और ‘मुक्तिबोध’ की मौत. कुछ लोग जानेंगे, कुछ नहीं. आपकी मौत गुमनामी के अंधेरे में खो जाएगी, क्योंकि काशी में न लोग जीवन को महत्व देते हैं न मृत्यु को. सबको ठेंगे पर रखते हैं. मृत्यु को शाश्वत मानते हुए वे शोक भी कायदे से नहीं मनाते. तर्क-वितर्क में मित्रों का दबाव दिल्ली और जड़ें बनारस की और खींच रही थीं. सो फॉर्मूला बना. मरना दिल्ली में है और अंतिम संस्कार बनारस में होगा. यह विचार करते-करते जाने कब मेरे प्राण-पखेरू उड़ गए. चैनलों पर खबर चली, एकाध जगह खबर मेरी लगाई फोटो दूसरे की. दूसरे रोज बड़े-बड़े अखबारों में छोटी-छोटी फोटो छपी. राजनेताओं ने कहा-कलम के धनी थे, उनकी कमी पूरी नहीं हो सकेगी. पर मैंने देखा, वह मन-ही-मन बुदबुदा भी रहे थे-अच्छा हुआ, चले गए. नाक में दम कर रखा था. हर फटे में टांग अड़ाते थे. चलो पिंड छूटा. किसी ने कहा, दोस्त अच्छा था. पर ऐसी दोस्ती का क्या मतलब जो लिखने में मदद न करे. मेरे दफ्तरवाले कुछ मित्रों का कहना था-'अच्छा हुआ, यहीं मर गए, बनारस में मरते तो पैसे और समय दोनों की बरबादी होती.' पड़ोसी बोले, 'आदमी तो अच्छे थे पर उनके यहां लोग इतने आते थे कि पार्किंग की समस्या हर रोज होती थी. अब इससे छुटकारा मिलेगा.' शायर मित्र आलोक ने दुःखी मन से मेरे और अपने रिश्ते पर शेर पढ़ा- 'घर के बुजुर्ग लोगों की आंखें क्या बुझ गईं/अब रोशनी के नाम पे कुछ भी नहीं रहा.' ये मित्र रिश्तों पर शेर पढ़ने के माहिर हैं. मुझे अपने कई मित्रों को लेकर उत्सुकता थी. वे मेरी मौत के बाद क्या करते हैं? कैसे शोक मनाते हैं? क्या कहते हैं? कैसा व्यवहार रहता है उनका? मैं चुपचाप सुबह के अखबार झांक रहा था. कहां क्या छपा है? किसी ने फोटो छापी, किसी ने नहीं. एक संपादक मित्र ने तो अखबार में खबर ही नहीं ली. जब कभी मिलते थे तो लंबी-लंबी हांकते थे. मेरे और अपने रिश्तों के कसीदे पढ़ते थे, पर मरते ही मुंह फेर लिया. मुझे उम्मीद नहीं थी कि वे ऐसी ओछी हरकत करेंगे. उन्हें क्या पता, मरने के बाद मुझे सब पता चल जाएगा. सफेद चादर ओढ़ ये बातें सुनते-गुनते मैं बनारस पहुंच गया. लोग दुःखी शोकाकुल तो थे, पर बनारसी मिजाज के अनुसार वे मजे भी ले रहे थे. मैं लेटे-लेटे लगातार यही हिसाब लगा रहा था कि कौन-कौन आया और कौन नहीं आया. कौन रीथ लाया, कौन बिना माला के आया. लखनऊ से ज्यादातर मित्र आए पर तिवारीजी नहीं आए. वे कई मौकों पर गच्चा देते रहे हैं. उन्हें लगा होगा कि मैं कोई देखने तो आ नहीं रहा हूं. वहां जाकर वक्त खोटा करने से अच्छा है आर.टी.आई. की दो-चार दरख्वास्त और लगा दी जाएं. फिर उनकी एक महिला मित्र भी ऑस्ट्रेलिया से आई थींं. उनके आगे तिवारीजी की सिट्टी-पिट्टी गुम रहती है. हालांकि उन मित्र से उन्हें डांट-डपट और बदसलूकी के अलावा जीवन में कुछ नहीं मिला. पर तिवारीजी ठहरे तिवारी, तमाशा छुप के देखते हैं. तब भी आनेवाले मित्रों की गिनती से मेरे भीतर संतुष्टि की स्लेट भर गई थी. तभी यकायक बाराबंकी वाले पुराने समाजवादी शर्माजी दिखे. वे किसी को कुछ नहीं समझते. बड़े मुंहफट हैं, इसीलिए राजनीति से उन्हें अब तक कुछ नहीं मिला. वे कहने लगे, अरे यह तो बड़ा बुरा हुआ. ये उम्र उनके जाने की नहीं थी. दुःखी शर्माजी पुरानी यादों में खो गए. मेरे और अपने रिश्तों का बखान करते भावुक हो गए. तभी उनसे किसी ने पूछ लिया. 'शर्माजी, आजकल किस पार्टी में हैं?' शर्माजी बोले, 'जहां जॉर्ज साहब हैं वही मेरी पार्टी.' जब वे पार्टी बदलते हैं, तो मेरी पार्टी खुद-ब-खुद बदल जाती है. एक किस्सा सुन लीजिए. बात साफ हो जाएगी. मेरे गांव में एक बेहना (जुलाहा) था. पिता की मौत के बाद उसकी मां ने दूसरी शादी दरजी से रचाई. किसी ने उस लड़के से पूछा, तुम्हारी जाति क्या है? लड़का बोला-‘पहले रहे बेहना, अब हैं दरजी, आगे अम्मा की मरजी.’ शर्माजी बोले, ‘हमारी अम्मा जॉर्ज फर्नांडिस हैं. ये जहां-जहां जाएंगे, वहीं अपनी पार्टी होगी. खैर छोड़िए, आपने भी ऐसी वाहियात बात ऐसे गमी के मौके पर छेड़ दी.’ शर्माजी समाजवादियों की उस परंपरा में हैं. जो हर वक्त झगड़े के लिए तैयार रहते हैं. एक बार वे ट्रेन से कहीं जा रहे थे. सामनेवाले यात्री से उन्होंने पूछा, ‘कितने भाई हो?’ जबाव में उसने कहा, दो, तो शर्माजी तपाक से बोले, ‘तीन ही होते तो क्या उखाड़ लेते?’ शर्माजी के साथ कई और लोग भी आए थे. सुबह घर के बाहर शवयात्रा में चलने के लिए जितने लोग जमा थे. उनमें ज्यादातर वे लोग थे, जिनकी मुझे उम्मीद नहीं थी. बचपन के दोस्त गुप्ताजी दिखे. गुप्ताजी तेल और इत्र बेचते हैं. बोले, ‘मैंने सुबह अखबार में इसके न रहने की खबर पढ़ी.’ वे किसी से कह रहे थे, मैं तो शवयात्रा में सिर्फ मैदागिन तक ही जाऊंगा. मुझे देर हो रही है, क्योंकि दुकान खोलना है. 'हेमंत हमारे स्कूल के साथी थे. सरकारी नौकरी नाहि मिलल त पत्रकार हो गइलन. दिल्ली में कौउनो अखबारै में नौकरी करत रहलन. अरे अगर अखबारै में नौकरी करे के रहल, त गांडिव में करतन/त हमऔ लोग पढ़ित.' दौड़ते-हांफते कौशल गुरु दिखे. वे अस्सी के डीह हैं, बवासीर की दवा से लेकर फ्रांस की क्रांति तक, तुलसीदास के भक्ति से लेकर नासा के नए अभियान तक, गंगा से लेकर हॉब्स, लॉक और रूसो तक, सब पर समान अधिकार से भाषण देते हैं. कहने लगे, मुझे तो अभी अस्सी पर पता चला. पप्पू की दुकान पर शोक सभा करके आ रहा हूं. अस्सी पर पप्पू की चाय की एक ऐतिहासिक दुकान है. जहां दिल्ली के कॉफी हाउस से बेहतर बहस होती है. इस दुकान की विशेषता है कि अगर दक्षिण अफ्रीका में भी कोई कवि मर जाए तो यहां शोकसभा हो जाती है. यहां दिन भर निठल्ला चिंतन जारी रहता है. सुदामा हों या वास्कोडिगामा, दलाईलामा हों या ओबामा, ओसामा हों या किसी के मामा, यहां किसी बात पर बहस चली, तो घंटों चलती रहती है. श्मशान घाट का इंतजाम मेरे मित्र पांडेयजी के हवाले था. पांडेयजी उन समाजवादियों में हैं, जिनका राष्ट्रवाद जीवन के उत्तरार्ध में जागा और यकायक पैंट के नीचे से हाफपैंट प्रकट हो गई. पांडेयजी और पूर्वी उत्तर प्रदेश के दिवंगत हो चुके नेता कल्पनाथ राय में एक समानता है. दोनों को एक ही पागल कुत्ते ने काटा था, और कुत्ता काटने का दोनों का  इलाज एक ही डॉक्टर ने किया. यह जानकारी पांडेयजी स्वयं देते हैं. पांडेयजी समाजवादी नेताओं की उस नस्ल में हैं जो अब लुप्त हो रही है. वे अपने भाषणों में भी इसका जिक्र करते हैं, मसलन, 'डॉ. लोहिया नहीं रहे, जयप्रकाशजी नहीं रहे, मधुलिमये चले गए. मेरा भी स्वास्थ्य खराब ही रहता है.' मेरी चिता लगवाने से लेकर कर्मकांड करवाने तक जिम्मा इन्हीं पांडेयजी का था. उन्हें देखते ही डोम राज अपने चंपुओं पर चिल्लाया-'जल्दी चिता लगाव' पांडेयजी क लाश आ गईल.' पांडेयजी बिफरे, 'अबे मूरख लाश हमार नहीं, हमरे दोस्त का हौ.' पांडेयजी और डोम राज में यह शास्त्रार्थ चल ही रहा था कि कुछ लोगों ने उठाकर मुझे चिता पर लिटा दिया. जो मित्र मेरे साथ तीस से चालीस साल से जुड़े थे, यकायक वे लोग भी मुझे छोड़कर सीढ़ियों पर खड़े हो गए. अलग-अलग समूह में ये सभी देश की चिंता में डूबे थे. किसी की चिंता का बिंदु था मुलायम सिंह केंद्र सरकार से समर्थन क्यों नहीं वापस ले रहे हैं, तो कोई समूह इस बात से परेशान था कि मायावती केंद्र सरकार में कब शामिल होंगी. जे गुरु बोले, यू.पी.ए. के सभी घटक दल चाहें तो भी, जब तक सी.बी.आई. सरकार के साथ है उसे कोई नहीं गिरा सकता. बदरी कवि ने अपना दुःख दिल से ही लगा लिया था. उन्होंने एक कविता पढ़ी कि मृत्यु रोने का नहीं, मसखरी का विषय है. बदरी हास्य व्यंग्य के कवि हैं. गंगा किनारे सूरज ढल रहा था. दिल्ली से आए सुशीलजी बार-बार बेचैन होकर घड़ी देख रहे थे. दिव्य लोक में उनके विचरण का टाइम हो गया था. मैंने देखा, धीरे-धीरे सरकते हुए वे घाट की सबसे पीछे की सीढ़ी पर जाकर बैठ गए. पीछे की पॉकेट से शीशी निकाली और एक ही सांस में गला तर. फिर सिगरेट सुलगाई, उनके मुरझाए चेहरे पर दिव्य चमक आ गई. पहली बार वे भावुक होकर मेरी चिता की तरफ देख बड़बड़ाने लगे-आदमी बड़ा मस्त था. खुद तो शराब छूता नहीं था पर दूसरों को विलायती स्कॉच ही पिलाता था. शीशी का असर दिमाग तक गया तो वे और भावुक हो गए. फूट-फूटकर रोने लगे. उपाध्यायजी ने उन्हें आकर संभाला. कहने लगे-क्या कीजिएगा. प्रभु की यही इच्छा थी. अभी उनके जाने की उम्र थोड़े ही थी! पर हम क्या कर सकते हैं. आइए, चलिए नीचे, टाइम हो रहा है. तभी मुझे दूर एक खल्वाट खोपड़ी दिखी. अरे यह तो आचार्यजी हैं. आचार्यजी को आता देख सुशील उनके गले लिपट दुःख का इजहार कर रहे थे या उन्हें कुछ सूचना दे रहे थे, यह समझ में नहीं आया. पर आचार्यजी ने इतना जरूर कहा, 'नहीं-नहीं आज बृहस्पतिवार है. बृहस्पतिवार को मैं नहीं लेता.' उसी वक्त भीड़ से तीन-चार लोग आचार्यजी की तरफ लपके. आचार्यजी ने कहा-मेरी सेक्रेटरी से समय लेकर होटल आ जाइए, वहीं बात होगी. आचार्यजी ने यहां भी अपनी प्रैक्टिस रोकी नहीं. ये भी पढ़ें: बसंत के मार्फत जीवन में मस्ती और उल्लास की सीख लेनी चाहिए उसी वक्त मिसिरजी हड़बड़ाहट में उठे. अरे यार, बड़ा परेशान हो गइली. सुबह से कुछ खइली नाही, पेट में चूहा कूदत हैं. आवा ऊपर चला; कुछ खा के आयल जाय. सुना है, इसी घाट पर किसी विदेशी ने डोसे की दुकान खोली है. तभी पीछे से त्रिवेदीजी चिल्लाए, ‘रुको यार, आग तो लग जाने दो.’ मिसिरजी फुसफुसाए-‘देर हो रही है. मेरा एक सप्लायर आनेवाला है कश्मीर से.’ मिसिरजी का पेट बड़ा पापी है. उसमें कुछ पचता नहीं है. युधिष्ठिर ने स्त्रियों के पेट में बात न पचने का श्राप दिया था. पुरुषों को ऐसा श्राप नहीं था, फिर युधिष्ठिर का श्राप उन्हें कैसे लगा. यह शोध का विषय है. किसी से वे घुल-मिलकर बात करें तो उनका पेट ऐंठने लगता है. राय साहब कुछ दुःखी दिखे. बोले-भइया का जुगाड़ बड़ा तगड़ा था. भरोसा था कि कभी जरूरत पड़ी तो वे खड़े मिलेंगे. रायसाहब ने यादव जी से कहा, अभी घंटा भर देरी है. आइए, पान जमा कर आया जाए. तिवारी बोले, यार हमारा बड़ा नुकसान हुआ. दिल्ली-लखनऊ के हमारे संपर्क वही थे. सबकी मदद करते थे. तभी दौड़ते-दौड़ते खाली हाथ ‘हिरिसी’ शर्मा जी नमूदार हुए. बचपन के दोस्त, इधर-उधर देखा और बगल के मुर्दे से एक माला उठाकर मेरे ऊपर डाल दी. दुःखी स्वर में बोले, 'हफ्ते भर से ज्यादा पत्नी के बिना रह नहीं पाता हूं. मुझे हर हफ्ते पत्नी की खातिर दिल्ली से बनारस आना होता है. ये तो चले गए, अब हमारा हेडक्वाटर कोटे से ‘रिजर्वेशन’ कैसे होगा?' 'वह तो ठीक है, अगर इतना गहरा संबंध था तो टेंट से खर्चा करके मित्र के लिए एक माला तो लाते'-चौबेजी डपटे. शर्मा जी का जवाब था, अरे भाई, वे देखने तो आ नहीं रहे, चाहे कहीं से माला लेकर पहनाएं. शर्मा जी ने भेद खोला मैंने एक लड़के से माला मंगवाई थी. पर वह माला की जगह ‘माला डी’ लेता आया. इसलिए यह करना पड़ा. मैंने देखा शर्माजी के आते ही मातमी सन्नाटा टूटा था. 'आदमी तो ठीक थे पर सबके उंगली करत रहलन', सावजी बोले. 'अरे यार, अच्छा खिलाते-पिलाते और घुमाते थे. पैसा खर्च करते थे मित्रों पर. पर ई समझ में नाहीं आयल कि ऐतना पइसवा आवत कहां से रहल,' रहस्यमय मुद्रा में बब्बू ने यह समाजवादी सवाल खड़ा किया. चौबेजी ने कहा, 'अरे भाई, मरने के बाद इस तरह की बातें नहीं करते.' बचपन के दोस्त दाढ़ीवाले बाबू साहब बोले, 'आइए, सिगरेट पीकर आते हैं. सबको एक दिन जाना ही है. पर एक बात तो थी कि यह आदमी हर काम ‘कैलकुलेट’ करके करता था. मुझे लगता है इतनी जल्दी मरने के पीछे भी कोई गणित जरूर है.' दाढ़ी खुजलाते बाबू साहब ने कहा. ये भी पढ़ें: नामवर सिंह: जिन्हें खारिज करते हैं, उन्हें ज्यादा पढ़ते हैं तभी एक झाल-मूड़ी बेचनेवाला आ गया. सब उस पर टूट पड़े, वह मूड़ी चना बना रहा था. भाई लोग उड़ा रहे थे. मैं आग लगने के इंतजार में था. यकायक राजा साहब का काफिला दिखा, कोई कुछ बोलता, उससे पहले ही वे पिच्च से पान की पीक चिता के पास ही थूककर बोले, 'अब देरी क्या है-जल्दी करवाइए.' किसी ने टोका, 'इतनी जल्दी में क्यों हैं राजा साहब. वे बोले, 'हमें एक जरूरी रजिस्ट्री के लिए कचहरी जाना है. आज सतीश मिश्रा जी भी आने वाले हैं.' यह कहते उन्होंने पास में रखी पानी की बोतल उठा ली. मूड़ी खाने वाले सब लोग अब पानी पर कटे वृक्ष की तरह गिरे. मुफ्त का पानी गुड्डू अपनी कंपनी से लाए थे. थोड़ी देर में सबके हाथ में एक-एक पानी की बोतल थी. यह सब चल रहा था, लेकिन सीढ़ी पर कुछ लोग चुपचाप बैठे न किसी की सुन रहे थे, न बोले रहे थे. बेजान और सूनी आंखों से मेरी चिता की ओर देख रहे थे. उन्हें देख ऐसा लगा, मानो उनका सबकुछ लुट गया है. कौन थे वे लोग! यह मैं नहीं बताऊंगा. तभी अचानक नींद टूटी. यह तो सुबह का सपना था. (यह लेख हेमंत शर्मा की पुस्तक 'तमाशा मेरे आगे' से लिया गया है. पुस्तक प्रभात प्रकाशन द्वारा प्रकाशित की गई है)

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